Tuesday, August 30, 2011

Mother Earth

धरती को माता कहते हो,
जीवित ही अग्नि देते हो!!


Vatan Parasti

झांको अपने अपने गिरेह्बानो में,
पल पल बदलती अपनी अपनी जुबानो में,
की इस जमीन को नंगा कर के,
न खुश रह सकोगे अपने मकानों में.

उठना तुमको ही है और तुम ही उठोगे,
के वतन परस्ती नहीं बिकती दुकानों में.

अब तो छोडो नोचना इस जमीन को,
कुछ तो फर्क होता है आदमी और हैवानो में.


Friday, February 29, 2008

सपना

धुंधलके रात के गहराए जा रहे हैं ...
वीरानियों में सन्नाटे गाए जा रहे हैं ॥
कुहासे की चादर में फिजा सो चुकी है ...
पग्दंदियों की लकीरें अपने निशाँ खो चुकी हैं ॥
शमा अपने आखिरी आंसू रो रही है ...
चांदी धीरे धीरे अपनी ज़िंदगी खो रही है ॥
तारों की साजिशें ख़त्म हो चली हैं ...
डरावनी सी सड़कें सहमी सी गली है ॥
सर्द हवाओं से पत्तियाँ कपकपा रही हैं ...
बांस के झुरमुट से रोने की आवाज़ आ रही है ॥
हाथ हाथों को खोजते फ़िर रहे हैं ...
अंधेरों से टकरा कर उजाले गिर रहे हैं ॥
नींद के आगोश में दुनिया सोयी है ...
बादलों के एक टुकड़ी अभी अभी रोई है ॥
तकियों के आगोश में सपनो की महफिल है ...
राजाइयों में दुबके धड़कते दिल हैं ॥
कमरे के परदे कुछ यूँ लहरा रहे हैं ...
जैसे अनजान से साये खिड़कियों से आ जा रहे हैं ॥
साँसों की आवाज़ सन्नाटे में छाई है ...
वक्त को भी जैसे आज ही नींद आई है ॥
सब कुछ थमा सा है फ़िर भी कुछ चल रहा है ...
मैं जगा तो पाया सूरज निकल रहा है ॥

ज़िंदगी

क्या कहूं ऐ ज़िंदगी, तुझे किस हद तक मैंने सोचा है ...
हर आह को मैं पी गया, हर ज़ख्म को खरोचा है ॥

और मैं ज़मींदोज़ हो गया

दम तोड़ गई आशाएं मेरी जब तेरी निगाहें बदली ...
और मैं ज़मींदोज़ हो गया ॥
धड़कने बंद हो गई दिल की मेरी जब तेरी राहे बदली ...
और मैं ज़मींदोज़ हो गया ॥
ख़ाक हो गया आशियाँ मेरा जब तेरी पनाहें बदली ...
और मैं ज़मींदोज़ हो गया ॥
मुझे समझा ऐ मसीहा मेरे क्यों तेरी चाहें बदली ...
और मैं ज़मींदोज़ हो गया ॥

हुस्न पर इतना गुरूर न कर ऐ दोस्त मेरे ...
की एक दिन तुझको भी रोना है ॥
साथ वाली खली कब्र में ...
एक दिन तुझको भी सोना है ॥

शायद तब तुझे एहसास हो की तूने ज़िंदगी में सच्चा प्यार खोया है ...
जो मरने के बाद भी तेरे साथ में सोया है ॥


Saturday, February 16, 2008

लौट के तू आ

कटती नही है शामो सहर, लौट के तू आ ...
मौजें हुई हैं तितर बितर, लौट के तू आ ॥

अनजान सी हैं दीवारें, बेज़ुबान सी खिड़कियाँ ...
किसी और का लगता है ये घर, लौट के तू आ ॥

फीकी हुई है चाय, तनहा सी पयालियाँ ....
लो दिन गया फ़िर से गुज़र, लौट के तू आ ॥

सूनी पड़ी है चादरें, तनहा सी रजाइयाँ ...
रात हुई, सो चुका है शहर, लौट के तू आ ॥

तू नही, कोई नही, बस फैली हुई हैं तनहाइयाँ ॥
गुमाँ नही कौन सा है पहर, लौट के तू आ ॥

गिनता रहा पिछले पहर, तारों की क्यारियाँ ...
फ़िर बजा चौराहे का गज़र, लौट के तू आ ॥

सूरज उगा, सुबह हुई, मजिलों को हैं सवारियां ...
जाऊं तो मैं जाऊं किधर, लौट के तू आ ॥

अनजान से हैं चहरे, अनसुनी सी कहानियां ...
नज़रें ढूँढें हैं इधर उधर, लौट के तू आ ॥

गुम है खोजता हूँ तेरे घर की खोई हुई पगडन्डियाँ ...
दुनिया गई है मेरी ठहर, लौट के तू आ ॥

वीरानगी तन्हाइयां महफ़िल में रुस्वाइयां ...
साँसे आती हैं सिहर सिहर, लौट के तू आ ॥

फसती हैं धड़कने, साँसों में हिचकियाँ ...
सह रहा हूँ दोजख का कहर, लौट के तू आ ॥

खुलती रही फ़िर बोतलें, लुटती रही पयालियाँ ...
घुलता रहा लहू में ज़हर, लौट के तू आ ॥