Friday, February 29, 2008

सपना

धुंधलके रात के गहराए जा रहे हैं ...
वीरानियों में सन्नाटे गाए जा रहे हैं ॥
कुहासे की चादर में फिजा सो चुकी है ...
पग्दंदियों की लकीरें अपने निशाँ खो चुकी हैं ॥
शमा अपने आखिरी आंसू रो रही है ...
चांदी धीरे धीरे अपनी ज़िंदगी खो रही है ॥
तारों की साजिशें ख़त्म हो चली हैं ...
डरावनी सी सड़कें सहमी सी गली है ॥
सर्द हवाओं से पत्तियाँ कपकपा रही हैं ...
बांस के झुरमुट से रोने की आवाज़ आ रही है ॥
हाथ हाथों को खोजते फ़िर रहे हैं ...
अंधेरों से टकरा कर उजाले गिर रहे हैं ॥
नींद के आगोश में दुनिया सोयी है ...
बादलों के एक टुकड़ी अभी अभी रोई है ॥
तकियों के आगोश में सपनो की महफिल है ...
राजाइयों में दुबके धड़कते दिल हैं ॥
कमरे के परदे कुछ यूँ लहरा रहे हैं ...
जैसे अनजान से साये खिड़कियों से आ जा रहे हैं ॥
साँसों की आवाज़ सन्नाटे में छाई है ...
वक्त को भी जैसे आज ही नींद आई है ॥
सब कुछ थमा सा है फ़िर भी कुछ चल रहा है ...
मैं जगा तो पाया सूरज निकल रहा है ॥

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